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बंबई से मुंबई तक

बंबई से मुंबई तक


बम्बई के मुम्बई बनने का सफर खून से सना है। देश के इस औद्योगिक शहर ने मायानगरी के अलावा माफिया अपराध को भी पनपते देखा है। मुंबई का अंडरवल्र्ड आज पूरे विश्व में अपनी जड़े जमा चुका है। लेकिन इस अंडरवल्र्ड की शुरूआत आखिर कब और कैसे हुई, इसी अन्र्तकथा को पेश करने के लिए मैंने एक अर्सा पहले मुंबई की सडक़ों की खाख छानी। पुलिस रिकार्ड में दर्ज दस्तावेजों का अध्ययन किया। कुछ पुराने पुलिस अफसरों की स्मृतियों को टटोला। ऐसे भी लोग थे जो कभी इस काली दुनिया का हिस्सा रहें,उनसे जानकारी हासिल की। इसी के बाद मैंने मुंबई अंडरवल्र्ड की अपराध गाथा लिखने का मन बनाया। इस अपराध गाथा की शुरुआत करीब 40 साल हुई थी। अपराध का यह सफर बन्दरगाह की गोदी से शुरू हुआ था और अब सात समुन्दर पार तक अपने पांव फैला चुका है। अडरवल्र्ड यानि जुर्म की दुनिया में वक्त के साथ कैसे बदलाव आए और बदलते वक्त के साथ जुर्म की दुनिया में किस सरगना की बादशाहत कायम हुई इसे आप लगातार पढ़ते रहेंगे।

यह सिलसिला है सत्तर के दशक का। उन दिनों मुंबई को बंबई के नाम से जाना जाता था। मराठा प्रदेश का यह फिल्मी शहर उन्ही दिनों भारत की सबसे बड़ी व्यवसायिक नगरी के रूप में तेजी से तब्दील हो रहा था। देश के कोने-कोने से हर जाति धर्म के लोग रोजगार की चाह में हर रोज बंबई पहुंचते हैं, उस समय भी ऐसा ही था। इसी कारण बंबई की आबादी तेजी से बढ़ रही थी। ऐसे में जमीन और मकानों के भाव भी तेजी से बढऩे लगे।
आंखों में हसीन सपने संजोय जो लोग इस ग्लैमर नगरी में पहुंचते उनमें बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होती जिनके सपने अधूरे रह जाते, टूट जाते थे। उनमें से कुछ गलत हाथों में पडक़र भटक जाते या फिर गलत रास्ते अपनाकर अपनी जीविका चलाते। अपराध की अंधेरी गलियों में भटकने वाले ये लोग कुछ तो गली मोहल्ले के मवाली बनकर रह जाते और कुछ बड़े इलाकों के दादा बन जाते, जिनके पास जितनी ताकत होती वह उतना ही बड़ा दादा बन जाता। दादा जिन्हे स्थानीय लोग बंबइया भाषा में भाई के नाम से सम्बोधित करते हैं।
करीब चौंतीस साल पहले सन 1974 के इसी माहौल में अपराध जगत के जो बड़े सरगना यानि भाई बंबई के अपराधिक क्षितिज पर अपना नाम लिख रहे थे। उनमें से एक कुख्यात नाम था-वरदराजन मुदालियार जो वरदा भाई के नाम से चर्चित हुए। यूं कहा जाये तो कुछ गलत न होगा कि वरदा भाई बंबई के अपराध जगत का गाïॅड फादर यानि सबसे पहला बड़ा संरक्षक था।
वरदा भाई सत्तर के दशक में अपने जन्म स्थान सलेम, तमिलनाडू से बंबई आये थे। बचपन से नेतृत्व करने की प्रवृत्ति के चलते वरदा भाई ने बोम्बे के विक्टोरिया टर्मिनल रेलवे स्टेशन के बाहर बूटपॉलिश करके जिन्दगी की शुरूआत की और फिर शीघ्र ही बुटपॉलिश करने वाले छोकरों को एकत्रित कर एक गिरोह बना लिया। वरदा भाई का सपना आसमान की बुलंदियों को छूने का था अपने इन्हीं सपनों को साकार रूप देने के लिए वरदा भाई ने अपना रूख बन्दरगाह की गोदी की तरफ किया। सागर किनारे बन्दरगाहों पर होने वाली कारगुजारियों का अपना एक अलग समीकरण होता है। समुद्री जहाजों से माल उतारने और गोदी तक पहुचाने के काम में होने वाली चोरी तथा हेर-फेर के अलावा कस्टम ड्यूटी से बचने के लिए तथा बीमा की रकम वसूलने के लिए माल गायब दिखाकर सीधे गोदामों तक कैसे पहुंचाया जाता है और तस्करी का माल कैसे उतरता है वरदा भाई ने इस कला को बाखूबी सीख लिया था। धीरे-धीरे वरदा भाई ने अपने छोकरों के साथ गोदी और डॉकयार्ड पर अपना साम्राज्य फैलाना शुरू कर दिया और चंद सालों में वरदा भाई गोदी का बेताज बादशाह बन गया। माल चाहे एक नम्बर का हो या फिर तस्करी का, बंबई के किसी भी डेकपोर्ट पर वरदा भाई की इजाजत के बिना माल नहीं उतर सकता था। इसका इतना असर हुआ कि तस्करी में पहले से जुड़े सरगना भी वरदा भाई की मदद लेने लगे। इन्ही मदद लेने वालों में एक नाम माफिया सरगना हाजी मस्तान का भी था।
हाजी मस्तान सोने की तस्करी करने वाला एक धार्मिक प्रवृत्ति का डॉन था। यह बात अलग है कि अपने समय में अपराध जगत से जुड़े सभी नये पुराने अपराधियों को जरायम पेशे के गुर हाजी मस्तान ने ही सिखाये थे। एक तरह से यह कहना गलत न होगा कि हाजी मस्तान नये पुराने अपराधियों का उस्ताद था। महाराष्ट्र के सितार जिले के रहने वाले हाजी मस्तान की जिंदगी का सफर मुंबई की एक गंदी सी चाल से शुरू हुआ था। किशोरावस्था में ही हाजी मस्तान ने पेट भरने के लिए आर्थर बंदरगाह पर कुली का काम शुरू कर दिया। यह सारा किस्सा 60 के दशक के दशक का है। जहां मजूदरी करने वाले मां और खुद का पेट भरने के लिए पहले उसने गलियों में सब्जी व फल बेची तो कुछ राते मजबूरी में किसी फुटपाथ पर पाइप में सोकर भी गुजारी। कुछ समय बाद जब मस्तान डॅाकपार्ट पर कुलीगिरी करने लगा तो चंद समय बाद ही मस्तान को डॉक पर होने वाली तस्करी के माल के हेर-फेर का पता चल गया । मस्तान अपने हाथ का कारनामा दिखाकर दो नंबर का माल कबाड़ मार्केट में ले जाकर बेचने लगा। धीरे-धीरे मस्तान के संबंध विदेश और विदेशी लोगों के साथ बन गये तो मस्तान ने उनके साथ भी हाथ मिलाकर पहले छोटे मोटे सामान और बाद में सोने की तस्करी का कारोबार शुरू कर दिया। यूं कहना गलत न होगा कि हाजी मस्तान बंबई का पहला तस्कर था जिसने तस्करी के अपराध को संगठित रूप दिया। हाजी मस्तान बंबई के अपराध जगत में उन दिनों तक अपना तस्करी का साम्राज्य स्थापित कर चुका था। उसे किसी ऐसे भाई की जरूरत थी जो तस्करी में उसके माल को सेफ्टी से उतार कर उसके गोदामों तक पहुंचा दे। वरदा भाई ने हाजी मस्तान से हाथ मिलाकर इस काम को बखूबी अंजाम देना शुरू कर दिया। कुछ ही सालों में बंबई महानगरी की रंगीन लोलुपता के साये में चल रहे अवैध धंधों में वरदा भाई और हाजी मस्तान ने अपने पांव पूरी तरह पसार लिए।
वैसे हमने आपको हाजी मस्तान के बारे में जो कुछ बताया है उसे पढक़र आपको अमिताभ बच्चन की मशहूर फिल्म दीवार की याद जरूर आ गई होगी। दरअसल दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन का काफी रोल हाजी मस्तान की जिंदगी से काफी मेल खाता है। कहा जाता है कि इस फिल्म की पटकथा हाजी के इशारे पर उसी के चरित्र को ध्यान में रखकर लिखी गई थी।
बहरहाल बात चल रही थी वरदा भाई की। जिसने हाजी मस्तान से हाथ मिलाकर अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए तस्करी, जिस्मफरोशी का जाल बिछाने, सायन-कोलीवाड़ा क्षेत्र में झुग्गी झोपड़ी बनवाने के लिए जमीनों पर अवैध कब्जे करने और ठेके पर हत्या करवाने तक के धंधे शुरू कर दिए थे। झुग्गी झोपडिय़ां बन गई और छोटे बड़े धंधेबाज चेले वहां आकर बस गए तो वरदा भाई के कुशल नेतृत्व में अवैध शराब का कारोबार भी सुनियोजित ठंग से चलने लगा। इसी के साथ वरदा भाई के प्रभाव क्षेत्र का विस्तार भी बढ़ चला। शक्ति संतुलन से लेकर आतंक और ऊंची पहुंच के खेल में भी वरदा भाई बड़ी रफ्तार से तरक्की करता गया। कहना चाहिए कि बंबइया अपराध जगत के एक बड़े हिस्से पर वरदा भाई का साम्राज्य स्थापित हो गया था। उनके सिपाहसालार निर्भय होकर जरायम की मुहिम फतेह करने लगे।
एक तरफ जहां हाजी तस्कर किंग बनकर जरायम की दनिया में किंग बन गया था ,वहीं दूसरी तरफ वरदा भाई मुंबई शहर में कत्लों गारत कराने वाला एक दसरा सिंडीकेट तैयार कर चुका था। हाजी जैसे लोगों की दुनिया वरदा जैसे भाइयों के बिना वैसे भी अधूरी मानी जाती है। हम फिरसे हाजी मस्तान की बात करते है। उन्ही दिनों तस्करी की दुनिया में यूसुफ पटेल, लल्लू जोगी और सुखनारायण बखिया जैसे तस्कर भी अपने पांव जमा चुके थे। हाजी मस्तान ने इन सभी तस्करों को एकत्रित कर एक सिंडीकेट की स्थापना की लेकिन कुछ अर्से बाद इस सिंडीकेट में शामिल यूसुफ पटेल और लल्लू जोगी ने सोने की तस्करी की दुबई में हुई एक बड़ी डील में बेईमानी कर ली जिस कारण हाजी मस्तान और यूसुफ पटेल में दुश्मनी हो गयी।
पटेल और हाजी मस्तान की दुश्मनी इस हद तक हो गई कि हाजी मस्तान ने 1971 में पेशेवर हत्यारों का गिरोह चलाने वाले करीम लाला के शूटरों द्वारा यूसुफ पटेल को भीड़ भरे भिंडी बाजार में सरेआम मरवा दिया। मुंबई के अपराध जगत में किसी अपराधी के गैंगवार के चलते हत्या की यह पहली वारदात थी। हाजी मस्तान की रोमांच भरी अपराधिक जिंदगी के ऐसे अनेक किस्से हैं। मैं अडंरवल्र्ड के इन सूरमाओं का महज जिक्र भर कर रहा हूं। अगर विस्तार से जानकारी दी जाएं तो हाजी मस्तान,वरदाभाई और करीम लाला पर अलग-अलग पूरी किताबें लिखी जा सकती है।
1974 का दौर हाजी मस्तान की जिंदगी में बदलाव का दौर था। उस समय आपात काल की शुरूआत होते ही तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने हाजी मस्तान को मीसा लगाकर जेल में डलवा दिया। हाजी मस्तान के पास मौजूद अथाह दौलत का अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि तब हाजी ने स्व. इंदिरा गांधी को लालच दिया था कि वह अपनी रिहाई के बदले उन्हे इतनी दौलत देगा कि उनके निवास से संसद भवन तक नोट सडक़ पर बिछा दिए जायेंगे। लेकिन अथाह दौलत भी हाजी मस्तान को रिहाई न दिला सकी। लेकिन आपात काल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो हाजी मस्तान समेत देश के चालीस बड़े तस्करों को माफी मिल गयी। हाजी मस्तान ने राजनीति की तरफ रूख किया और 1984 में महाराष्ट्र के दलित नेता जोगिन्दर कावड़े के साथ मिलकर दलित-मुस्लिम सुरक्षा महासंघ नाम से राजनीतिक दल की स्थापना की। बाद में 1990 में इसका नाम बदल कर भारतीय अल्पसंख्यक महासंघ कर दिया गया।
हाजी मस्तान के राजनीतिक दल ने बंबई, मद्रास और कलकत्ता के निकाय चुनाव में हिस्से लिए। जिनमें महासंघ को कोई सफलता तो नहीं मिली पर काले धन का इन चुनाव में जमकर प्रदर्शन हुआ। कहा जाता है कि चुनावों में काले धन के खुलेआम पानी की तरह बहाएं जाने का सिलसलिा भी उसी वक्त से शुरु हुआ था। 1991 में हाजी मस्तान की स्वाभाविक मौत हुई तो भले ही उनके अपराधिक साम्राज्य का अंत हो गया , मगर हाजी मस्तान नाम के अपराध रूपी पेड़ से जो शाखायें फूटी थी, उन्होने मुंबई के अपराध जगत में कुछ ऐसे गुल खिलाये कि आज यह अंडरवल्र्ड और इसके कारनामें मुंबई की आवाम के लिए नासूर बन चुके हैं। हाजी मस्तान का जिक्र खत्म करने से पहले मै आपकों उसकी कुछ ओर खूबियां बताना चाहता हूं। हाजी ही वह शख्स था जिसने सबसे पहले बॉलीवुड की दुनिया में दखल अंदाजी शुरू की थी। फिल्मों में अपराध के जरिए कमाए और काले धन को लगाने का सिलसिला भी उसी ने शुरू किया था। बड़े निर्माता निर्देशकों के इशारे पर अभिनेता-अभिनेत्रियों को डराने-धमकाने का चलन भी हाजी मस्तान ने ही शरू किया था। फिल्मी दुनिया में हाजी की दखलअंदाजी के कई दिलचस्प किस्से मशहूर है जिनसे उसके अपराधिक तंत्र की हैसियत का पता चलता है। एक ऐसा ही किस्सा कुछ इस तरह है। हुआ यूं कि अपने जमाने की एक मशहूर अदाकारा जो बाद में देश की जाने-माने गायक की पत्नी बनी, अपनी फिल्म का सेट छोडक़र अचानक गायब हो गई। वह जाना माना फिल्म निर्माता अभिनेत्री को शूंटिंग पर लौटने का दबाव डालने के लिए हाजी की शरण में पहुंचा। हाजी ने फिल्म निर्माता को जबान दे दी।
हाजी ने तत्काल अपने दुनियाभर में फैले अपराधिक तंत्र का सक्रिय किया तो हैरत अंग्रेज ढंग से वह अभिनेत्री अचानक तीसरे दिन शूटिंग के लिए मुंबई में फिल्म के सेट पर पहुंच गई। दरअसल हुआ यूं कि हाजी के गुर्गो ने उस अभिनेत्री को लंदन में तलाश कर लिया जहां वो अपने प्रेमी के साथ थी। हाजी के गुर्गो ने अभिनेत्री को चेहरे पर तेजाब फेंकने की धमकी दी जिसके परिणाम स्वरूप 80 के दशक की वह प्रसिद्ध अभिनेत्री काम पर लौट आयी। वाकई गजब था हाजी का अपराध की दुनिया में नेटवर्क। वैसे अपराध की दुनिया मे हाजी को आज भी रॉबिनहुड की तरह याद किया जाता है। यह कोई आश्चर्य की बात भी नही है। क्योंकि वह शराब को छूता भी नही था । उसने अनगिनत गरीब लड़कियों की शांदियां करवायी। न जाने कितने बेकार नौजवानों को काम पर लगवाया। हाजी मस्तान भले ही कितना भी धमभीरू और नेकदिल इंसान रहा हो लेकिन वो एक तस्कर, एक डॉन ,एक अपराधी था। इस सच से इंकार नही किया जा सकता।
एक फिल्मी डॉन की तरह हाजी मस्तान की भी कुछ कमियां थी। एक आम इंसान की तरह उसमें भी खूबसूरत लड़कियों पर फिदा होने की कमजारी थी। हाजी अक्सर फिल्मी पार्टियों में जाता था जहां वो एक सम्मानित अतिथि की तरह बुलाया जाता था। इन्हीं पार्टियों में आते-जाते हाजी मस्तान के दिलो दिमाग पर सोना नाम की एक महत्वाकांक्षी फिल्मी हसीना इतनी बुरी तरह छा गई कि पहले ही कई शादी रचा चुके हाजी ने न केवल उसे पत्नी जैसा दर्जा दिया बल्कि उसने सोना का हेरोइन बनने का अरमान पूरा करने के लिए एक फिल्म बदनाम फरिश्ते बना डाली।
यह फिल्म सोना का कोई भला न कर सकी तो हाजी ने सोहराब मोदी को वित्तीय सहायता देकर मीना कुमारी की अमर कहानी फिल्म बनवायी। इस फिल्म में सोना ने मधुबला की भूमिका निभायी। दरअसल बॉलीवुड में सोना को मधुबाला की डुप्लीकेट ही माना जाता रहा है । इतना ही नही हाजी ने कुछ फिल्मकारों को पैसा देकर एक और फिल्म बनवायी जिसमें सोना के साथ अभिनेता का रोल खुद हाजी ने किया था मगर हाजी के जीवन और चरित्र को लेकर बनी यह फिल्म बुरी तरह पिट गई। तमाम पैसा और ताकत लगाने के बावजूद हाजी अपनी रॉबिनहुड की छवि को भुना नही सका। अभिनेत्री को सेट पर बुलवाने की बात हो या फिर सोना को हेरोइन बनाने के लिए फिल्मों में पैसा लगाने और दखलअंदाजी करना ये उदाहरण देना इस लिए जरूरी था कि आप समझ जाए मुंबई के अपराध जगत में इसकी बुनियाद हाजी ने रखी थी। बहरहाल हमने जिक्र किया था करीम लाला और वरदा भाई का जो उसी दौर में मुंबई में अपराध के क्षितीज पर चमके जब वहां हाजी मस्तान का दौर था। वरदा भाई के बारे में हम बता ही चुके है ,अब रहा करीम लाला जिसका उदय भी ठीक उन्हीं दिनों में हुआ था यूं कहें कि करीम लाला का अपराध जगत में उदय एक तरफ से खूनी गैंगवार की शुरूआत थी । हालांकि करीम लाला उन्हीं दिनों शुरू हुई गैंगवार में कभी का खत्म हो चुका है मगर करीम लाला के खात्मे के बावजूद मुंबई में गैंगवार आज तक जारी है।
करीम लाला पेशेवर पठान हत्यारों के ऐसे गिरोह का सरगना था, जिनका काम सुपारी लेकर लोगों को मौत के घाट उतारना था। जलालाबाद, पखतूनिस्तान से बंबई आकर करीम लाला ने अपनी दिलेरी के बल पर पठानों का गिरोह तैयार किया था। इस गिरोह का काम मिल मालिकों के लिए मजदूर नेताओं की आवाज दबाना, बिल्डरों फायनेंसरों की डूबी रकम और जमीन पर कब्जे दिलवाने के अलावा तस्कर गिरोहों के लिए भी काम करना था। होजी मस्तान और वरदा भाई ने एक लम्बे समय बाद धर्म - कर्म और राजनीति के कारण अच्छी सामाजिक प्रतिष्ठा बना ली थी। करीम लाला ने भी अपना अपराधिक साम्राज्य स्थापित करने के बाद ऐसा ही करना चाहा जिसके लिए उसने हज किया और लौटने के बाद अपने जुंए, शराब व मादक पदार्थें के अड्डे अपने भतीजों और विशवस्त साथियों को सौंप दिये थे। लेकिन अपनी अलग खून खराबे की अपराध शैली के कारण वह हाजी और वरदा भाई जैसी प्रतिष्ठा न पा सका।
हाजी मस्तान की तरह करीम लाला भी राजनीतिक रूतबा हासिल करने की ख्वाहिश रखता था। वह करीब तीस सालों तक पख्तून जिरगा ए हिंद नामक पठानों की संस्था के मुखिया भी रहे। इसीलिए इंदिरा गांधी, खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे राजनीतिज्ञ और सामाजिक लोगों तथा दिलीप कुमार जैसे अभिेनेताओं से उनका मिलना जुलना हो गया था। हाजी मस्तान, वरदाभाई और करीम लाला एक के बाद एक अपनी जिंदगी का सफर पूरा कर गए। लेकिन अपने पीछे छोड़ गए जुर्म की एक ऐसी विरासत जिस पर कब्जा जमाने के लिए बाद में मुंबई में खून का दरिया बहा। समूचा महाराष्ट्र अपराधियों के आंतक से दहल गया।
(आखिर कौन थे जुर्म की दुनिया में इन सरगनाओं के अगले वारिश और किसको मिली बादशाहत पढ़ते रहिए मैं आगे लिख रहा हूं)

3 Responses to "बंबई से मुंबई तक"

  1. अम्बरीश कौशिक15 जून, 2014 16:52

    बहुत खूब लिखा है एक एक तथ्य सही से उजागर किया है....

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  2. अम्बरीश कौशिक15 जून, 2014 16:54

    अच्छा लिखा है आपने प्रत्येक तथ्य पूर्ण है...

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  3. नमस्कार सर.... सर मैं एक क्राईम पत्रिका इंडिया क्राईम देखता हूं। आपसे सम्पर्क करना चाहता हूं। आप से कैसे सम्पर्क कर सकता हूं।


    यासिर अरफात
    इंडिया क्राईम, पत्रिका
    9555305920
    arfatyasir5@gmail.com

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