. . . .ओर पुलिस हवलदार का बेटा अपराध की अंधी गली में चला गया
सत्तर के दशक की शुरुआत से ही बंबई के अपराध जगत में अपराध चक्र तेजी से घूमने लगा था। महानगर में पैसे की चकाचौंध और सम्पन्नता को देखकर कई छोटे-छोटे अपराधी गिरोह सिर उठाने लगे थे। इन्ही में से एक था (हाजी मस्तान और वरदा भाई) का चेला दाऊद इब्राहिम। वही दाऊद जो आज अपराध की दुनिया का बेताज बादशाह है और उसके गिरोह को डी-कंपनी के नाम से जाता है। माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम के बारे में जानने के लिए आपकों तीन दशक पहले के उस अतीत में ले चलते हैं जब मुंबई को बंबई के नाम से ही पुकारा जाता था और यहां सिर्फ हाजी मस्तान और वरदाभाई का सिक्का चलता था, मुंबई में कमाठीपुरा का इलाका तब छोटे -बड़े अपराधियों की शरणास्थली के रूप में चर्चित था और चारो ओर वेश्याओं का टिड्डी दल फैला हुआ था। उसी कमाठीपुरा के दूसरे छोर पर जे.जे. अस्पताल के निकट एक अंधेरी संकरी सडक़ की मामूली सी इमारत की मामूली सी चाल में सीआईडी पुलिस का हवलदार इब्राहिम कास्कर अपने छह बेटों, चार बेटियों और बीवी के साथ रहा करता था, उसके सपने तो बहुत ऊंचे थे, लेकिन पगार कम होने के कारण सपने कभी पूरे नही हो पाते थे। इन्ही सपनों को अपना बनाने के लिए वह गलत रास्तों पर चल निकला था।
इब्राहिम शेख कास्कर का पिता जिला रत्नागिरी के एक गांव मुमके का रहने वाला था, गरीबी से तंग आकर वह मुंबई चला आया, धीरे धीरे मुस्लिम बहुल इलाके भिंडी बाजार में, जो अपराधियों का एक बहुत बदनाम इलाका भी माना जाता है, वहां जूते की दुकान और हेयर कटिंग सैलून खोल लिए और दुकान में सहायता के लिए गांव से अपने बेटे इब्राहिम शेख कास्कर को बुलवा लिया। लेकिन इब्राहीम कास्कर का मन दुकान में नही लगा। तब वह मुंबई पुलिस में भर्ती हो गया। उस जमाने में पुलिस में नौकरी पाना ज्यादा मुश्किल नही था। इब्राहीम शेख की तैनाती, क्राइम ब्रांच में हुई। वहीं पर उसकी मुलाकात हाजी मस्तान से हो गई और वह उसके लिए काम करने लगा। उसने अपने दो बेटों का नाम पास के ही अहमद रोलर स्कूल में लिखवा दिया। उसके ये दोनों बेटे थे-अनीस इकबाल और अबदुल्ला। जबकि दो बेटों साबिर और दाऊद की दोस्ती पास की एक स्ट्रीट में रहने वाले आलमजेब, अमीरजादा और शाहजादा से हो गई। अमीरजादा और शाहजादा के पिता नवाबजादा खान की थेाड़ी बहुत दुआ सलाम इब्राहीम कास्कर से थी, दाऊद स्कूल में बास्केटबाल का अच्छा खिलाड़ी था और बड़ा होने पर बास्केटबाल चैम्पियन और पुलिस अफसर बनना चाहता था।
इब्राहिम कास्कर ने 1959 में क्राइम ब्रांच की नौकरी छोड़ दी। लेकिन इससे पहले मनीष मार्केट में एक छोटी सी गुमटी खरीद ली थी। बंबई व्ही.टी. से कुछ ही कदम के फासले पर बंबई पुलिस मुख्यालय के ठीक सामने स्थित क्रार्फड मार्केट के पिछवाड़े की मुख्य सडक़ पर मोस्ता मार्केट, मनीष मार्केट तथा मुसाफिर खाना के इर्द-गिर्द का स्थान तस्करी के सामानों की खुली बिक्री के लिए मशहूर है। यहां पर ताजातरीन इपोटेंड सामान खरीदने वालों का मेला सा लगा रहता है।
इब्राहिम के अन्डरवल्र्ड संपर्को के कारण साबिर व दाऊद की इंपोर्टेड सामानों से अटी दुकान न केवल चल निकली बल्कि हाजी मस्तान कनेक्शन के कारण उस इलाके में उनका रूतबा भी छाने लगा। दोनों ने हाजी मस्तान के लिए काम करना शुरू कर दिया। यह वह समय था, जब कमाठीपुरा, भिंडी बाजार, मोहम्मद अली रोड तथा डोकरी से लेकर मुसाफिरखाना तक करीम लाला और उनके कांट्रैक्ट किलर्स गिरोह का आतंक फैला हुआ था, पुलिस और अदालतों में विश्वास न रखने वाले लोग अपना काम करने के लिए करीम लाला गिरोह से संपर्क करते थे और भारी रकम काम के बदले में देते थे। बीहड़ समुद्र में अरब देशों से आने वाले सोने से भरी जैकटों को मछलीमार नौकाओं में लादकर समुद्र तट पर उतारने से लेकर गंतव्य तक पहुंचाने में जोखिम बहुत था। लेकिन आमदनी उस ढंग की नहीं थी, जैसी कि ठेके पर काम करने में। (मुंबई की अपराधिक दुनिया में ठेकों पर काम करने को सुपारी देना कहा जाता है जिसमें क्लाइंट गिरोह को काम सौपते समय तक रकम की आधी राशि अग्रिम में देते समय साथ में एक सुपारी भी देते हैं।)
सुपारी के काम ने दाऊद के बड़े भाई साबिर को इस हद तक रोमांचित किया कि उसने दाऊद, आलमजेब, अमीरजादा, शाहजादा तथा कुछ और साथियों का गिरोह बना कर सुपारी लेना शुरू कर दिया। शुरू में मिली सफलताओं ने उन्हें और भी दुस्साहसी बना दिया। दूसरी तरफ करीमलाला के उम्रदराज हो जाने से उनके भतीजे तथा वारिस समद खान ने उनका काम संभाल लिया। इस तरह से दो सुपारी गिरोहों का नेतृत्व दो दुस्साहसी युवकों के हाथों में आ गया। यहीं से इन दोनों गिरोहों के बीच आपसी टकराव और प्रतिद्वंद्विता का जो बीज पड़ा, वह आगे चलकर हिंसा का वटवृक्ष बन गया। लेकिन तब इसका आभास न तो उन दुस्साहसी युवकों को था और न उनके अभिभावकों को।
मुंबई में सुपारी देकर काम कराने वालों की कमी नहीं थी। जिस महानगर का सारा व्यवसाय उधारी पर चलता हो और गोदाम ,दुकान तथा फ्लैट बनवाकर किराये पर देकर आधी कमाई करने वालों की तादाद असंख्य हो, वहां उन लोगों की तादाद भी असंख्य होती है, जो पांव जमते ही अमानत में ख्यानत करने पर उतर आते हैं। अदालत में उनसे अपने धन या मकान-गोदाम दुकानों की वापसी के लिए याचिका दायर करने पर समय तो जाया होता ही है अदालती लड़ाई में वकीलों पर पानी की तरह पैसा बहाकर भी उन्हें अपना धन या सम्पत्ति मिलने की गारंटी नहीं होती, जबकि थोड़ी सी रकम और बढ़ाकर वे सुपारी देकर उन्हे वापस पा सकते हैं ऐसे में करीम लाला, समद खान तथा साबिर-दाऊद गिरोह को अपने पांव जमाने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
इसी बीच एक काम में मिली रकम के बंटवारे को लेकर साबिर-दाऊद का अपने गिरोह के तीन सदस्यों आलमजेब, अमीरजादा और शाहजादा से झगड़ा हो गया। इन तीनों को विश्वास था कि साबिर-दाऊद ने बंटवारा इमानदारी से नहीं किया और भारी रकम दाब ली है। तीनो ने अपने कुछ साथियों के साथ दाऊद का गिरोह छोड़ दिया और करीम लाला, समद खान के साथ हो गये। इससे दाऊद गिरोह को झटका लगा, लेकिन दोनों भाइयों ने इसकी परवाह नहीं की और सुपारी और तस्करी के साथ-साथ अपहरण फिरौती का काम भी शुरू कर दिया। 1975 आते-आते उनके कदम कुछ हद तक जम गये थे, लेकिन करीम लाला-समद खान का गिरोह अब भी उनपर भारी पड़ता था। 1975 में गिरोह ने मुसाफिर खाना पर कब्जा कर लिया जहां हज जाने वाले यात्री जहाज से रवाना होने तक ठहरा करते थे उसके तत्कालीन मालिक ने मुसाफिर खाना को खाली करने का ठेका दाऊद को दे दिया दाऊद ने अपने दो साथियों महमूद कालिया और खालिद पहलवान की सहायता से मुसाफिर खाना पर कब्जा कर लिया। तो उसका प्रभाव और बढ़ गया। वोहरा मुसलमानों से भरे उस इलाके में पहले करीम लाला के एक पठान सहयोगी सईद बट्टा का काफी प्रभाव था। लेकिन मुसाफिर खाना विजय के बाद करीम लाला के प्रभाव को काफी धक्का लगा, तो समद खान ने दाऊद के ठेके के काम में टांग अड़ाकर खुद उस पर दांत मारना शुरू कर दिया। उसने एक पार्टी को पटाकर वह जाब खुद ले लिया, जिसमें बतौर कमीशन दाऊद को तीन लाख रूपये नकद मिलने वाले थे। इसी तरह की कई पार्टियां दाऊद के हाथ में आकर भी निकल गईं। इन्हीं में एक था तीन स्वर्ण तस्करों मियां, उमर बख्शी तथा शमशेर का एसाइनमेंट जॉब।
दुबई से समुद्र तट तक पहुंचे तीन तस्करों के सोने पर कस्टम अधिकारियों ने छापा मारकर उसे कस्टम के स्ट्रांग रूम में जमा करा दिया था। लेकिन तीनों तस्करों को विश्वास था कि 12 लाख रूपये के सोने के बिस्कटों से भरा एक जैकेट एक कस्टम अधिकारी ने चुपचाप खिसका दिया था। उस कस्टम अधिकारी से वह जैकेट बरामद कर उन्हें सौंपने का जॉब साबिर और दाऊद को सौंपा, बदले में 3 लाख रूपये बतौर पारिश्रमिक देने की बात मंजूर की। किसी कारणवश यह जॉब दाऊद गिरोह पूरा नहीं कर सका, तो उन्होंने समद खान से संपर्क किया। समद खान ने आलम जेब और अमीरजादा की सहायता से वह जैकेट लाकर उन तीनों तस्करों को सौंप दिया, तो साबिर और दाऊद बौखला गए।
12 फरवरी 1979 को साबिर अपने घर से केनेडी ब्रिज के लिए रवाना हुआ, जहां उसकी एक रखैल वैश्या रहती थी, जब वह उसके साथ कार में रवाना हुआ तो अमीरजादा, आलमजेब व जफर एक रेस्तरां में पाव भाजी खा रहे थे, साबिर को देखते ही उन्होनें आंखों में बात की, पाव भाजी छोडक़र वह तुरंत रेस्तरां से बाहर निकले और एक कार में सवार हो उसके पीछे लग लिये। प्रभादेवी पहुंचकर उन्होने एक कार किनारे रोकी और अपनी रिवाल्वर निकालकर प्रभादेवी पैट्रोल पम्प पर कार में पैट्रोल भरवा रहे साबिर पर निशाना साधा और रिवाल्वर के चैंबर खाली करने शुरू कर दिये। साबिर कटे पेड़ की तरह जमीन पर गिर पड़ा, वे कार लेकर मुसाफिर खाना पहुंचे। हां दाऊद के अपने दफ्तर में होने की उम्मीद थी वहां पहुंचते ही उन्होंने बाहर से अंधा धुंध फायरिंग शुरू कर दी। भीतर मौजूद खालिद पहलवान ने जवाबी फायरिंग शुरू की तो एक गोली आलमजेब की टांग में लगी और वह गिर पड़ा। तब फायरिंग रोककर वे सब भाग खड़े हुए। साबिर की हत्या की खबर मिलते ही दाऊद सचमुच पागल सा हो गया। उसने और उसके गिरोह ने समद खान ,अमीरजादा के सभी ठिकानों पर हमले किये, लेकिन पहले से ही सतर्क गिरोह के सभी लोग अंडरग्राउंड हो गये थे। आलमजेब-अमीरजादा से सलाम दुआ का रिश्ता रखनेवाले जो भी उनके सामने पड़े उनकी बुरी तरह से धुनाई की। आलमजेब और अमीरजादा जिस गली में रहते थे, वहां खड़ी टैक्सियों में आग लगा दी, उन्होने उन्हें मुफ्त पान खिलाने वाला पनवाड़ी को भी नहीं बख्शा, लेकिन असली मुजरिम तो साबिर की हत्या होते ही फुर्र हो गये थे।
दो गिरोहों की जानलेवा दुश्मनी, ऊपर से कस्टम तथा मुंबई पुलिस के बढ़ते दबाव के कारण दाऊद के तस्करी व्यापार पर बुरी तरह से असर पड़ा था और उसके लिए मुंबई सुरक्षित स्थान भी नहीं रह गया था, न व्यवसाय के लिहाज से और न ही सुरक्षा की दृष्टि से ऐसे में उसकी निगाह गुजरात के सुनसान सागर तटों पर गयी। जहां कभी तस्कर सम्राट सख नारायण बखिया का एकक्षत्र साम्राज्य था और कस्टम अधिकारी भी उस पर हाथ नही डाल पाते थे। उसने तुरंत बखिया के दायें हाथ लल्लू जोगी से दमण जाकर मुलाकात की। बखिया की गिरफ्तारी के बाद लल्लू जोगी भी अकेला पड़ गया था। दाऊद ने दुबई के शेख हाजी अशरफ के साथ लल्लू जोगी की मीटिंग कराकर एक गिरोह की स्थापना की, जिसके तहत विभिन्न देशों से सोने का जुगाड़ करने की जिम्मेदारी शेख हाजी असरफ की, द्रमण में सोना उतार कर निर्धारित जगहों पर पहुंचाने का काम लल्लू जोगी का तथा दुबई से गुजरात तक सोना तथा दूसरे सामान पहुचाने,सोने के बदले में भुगतान आदि की जिम्मेदारी तथा पूरा ऑपरेशन दाऊद को सौंपा गया। इस तरह तिलंगे तस्करों का व्यापार तब तक निर्विधन चलता रहा, जब तक दयाशंकर वहां कस्टम कलक्टर बनकर नहीं आ गए। उनकी घेरेबंदी से घबराकर दाऊद को दमण का सुरक्षित तट छोडक़र जामनगर के तट पर अपना कारोबार जमाना पड़ा। उसने वहां का काम संभालने की जिम्मेदारी जस्सू पटेल तथा जाखू काटा पर सौंपी। ताकि वह अपना ध्यान दुबई में स्थापित कारोबार संभालने में लगा सके। उसने वहां पर गारमेंट फैक्ट्री, ताजी खाद्य सामग्री और गोश्त के अलावा इलेक्ट्रॉनिक्स सामानों के आयात का काम भी शुरू कर दिया था। अभी तक ऊपर से शांत दिख रहा दाऊद आलमजेब को भूला नहीं था। दाऊद को मुंबई पुलिस पर विश्वास नहीं रह गया था। दाऊद की यह भी शिकायत थी कि साबिर के हत्यारों का नाम पता मालूम होने के बाद भी पुलिस ने किसी भी मुजरिम को गिरफ्तार नहीं किया था। किन्तु कुछ समय बाद जब अमीरजादा ने शक्ति फिल्म (दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन, राखी एवं स्मिता पाटिल) के निर्माता मुशीर रियाज का अपहरण फिरौती के लिए किया, तो वही पुलिस तत्काल हरकत में आ गयी और अमीरजादा को 29 फरवरी 82 को गिरफ्तार कर लिया।
6 सितम्बर 1983 को जब अमीरजादा को पुलिस की कड़ी निगरानी में सेशन जज एस.वाई.जोशी की अदालत में जफर अली के साथ पेश किया गया तो दर्शकों की दीर्घा में बैठा डेविड परदेसी उठा और रिवाल्वर निकालकर प्वाईंट रेंज से अमीरजादा पर फायर किया। फिर अदालत में भगदड़ का फायदा उठाकर भागा लेकिन अदालत में बैठे इंस्पेक्टर इसाक बागवान ने उसके पैरों का निशाना साधकर गोली चलायी। वह गिर पड़ा और पुलिस ने उसे दबोच लिया। भरी अदालत में अमीरजादा की हत्या होते ही आलमजेब भाग निकला और कच्छ (गुजरात) पहुंचकर एक अपराध में अपने को गिरफ्तार करवा दिया ताकि वहां पर सुरक्षित रह सके। हत्या के वक्त छोटा राजन के साथ अदालत में मौजूद दाऊद भी वहां से चुपचाप खिसक गया। पुलिस ने क्या तहकीकात की यह तो पता नहीं लेकिन समद खान गिरोह ने पता लगा लिया कि दाऊद ने वरदा भाई के कभी दायें हाथ रह चुके राजन नायर को अमीरजादा की हत्या के लिए सुपारी दी थी और डेविड परदेसी उसी का शूटर था।
(मुंबई के जरायम सिंडीेकेट के बीच मारकाट अब खूनी इंतकाम में बदल चुकी थी। आगे आपकों बताएंगें किस तरह दाउद ने अपने दुश्मनों का सफाया करके डॉन की पदवी हासिल की)
इब्राहिम शेख कास्कर का पिता जिला रत्नागिरी के एक गांव मुमके का रहने वाला था, गरीबी से तंग आकर वह मुंबई चला आया, धीरे धीरे मुस्लिम बहुल इलाके भिंडी बाजार में, जो अपराधियों का एक बहुत बदनाम इलाका भी माना जाता है, वहां जूते की दुकान और हेयर कटिंग सैलून खोल लिए और दुकान में सहायता के लिए गांव से अपने बेटे इब्राहिम शेख कास्कर को बुलवा लिया। लेकिन इब्राहीम कास्कर का मन दुकान में नही लगा। तब वह मुंबई पुलिस में भर्ती हो गया। उस जमाने में पुलिस में नौकरी पाना ज्यादा मुश्किल नही था। इब्राहीम शेख की तैनाती, क्राइम ब्रांच में हुई। वहीं पर उसकी मुलाकात हाजी मस्तान से हो गई और वह उसके लिए काम करने लगा। उसने अपने दो बेटों का नाम पास के ही अहमद रोलर स्कूल में लिखवा दिया। उसके ये दोनों बेटे थे-अनीस इकबाल और अबदुल्ला। जबकि दो बेटों साबिर और दाऊद की दोस्ती पास की एक स्ट्रीट में रहने वाले आलमजेब, अमीरजादा और शाहजादा से हो गई। अमीरजादा और शाहजादा के पिता नवाबजादा खान की थेाड़ी बहुत दुआ सलाम इब्राहीम कास्कर से थी, दाऊद स्कूल में बास्केटबाल का अच्छा खिलाड़ी था और बड़ा होने पर बास्केटबाल चैम्पियन और पुलिस अफसर बनना चाहता था।
इब्राहिम कास्कर ने 1959 में क्राइम ब्रांच की नौकरी छोड़ दी। लेकिन इससे पहले मनीष मार्केट में एक छोटी सी गुमटी खरीद ली थी। बंबई व्ही.टी. से कुछ ही कदम के फासले पर बंबई पुलिस मुख्यालय के ठीक सामने स्थित क्रार्फड मार्केट के पिछवाड़े की मुख्य सडक़ पर मोस्ता मार्केट, मनीष मार्केट तथा मुसाफिर खाना के इर्द-गिर्द का स्थान तस्करी के सामानों की खुली बिक्री के लिए मशहूर है। यहां पर ताजातरीन इपोटेंड सामान खरीदने वालों का मेला सा लगा रहता है।
इब्राहिम के अन्डरवल्र्ड संपर्को के कारण साबिर व दाऊद की इंपोर्टेड सामानों से अटी दुकान न केवल चल निकली बल्कि हाजी मस्तान कनेक्शन के कारण उस इलाके में उनका रूतबा भी छाने लगा। दोनों ने हाजी मस्तान के लिए काम करना शुरू कर दिया। यह वह समय था, जब कमाठीपुरा, भिंडी बाजार, मोहम्मद अली रोड तथा डोकरी से लेकर मुसाफिरखाना तक करीम लाला और उनके कांट्रैक्ट किलर्स गिरोह का आतंक फैला हुआ था, पुलिस और अदालतों में विश्वास न रखने वाले लोग अपना काम करने के लिए करीम लाला गिरोह से संपर्क करते थे और भारी रकम काम के बदले में देते थे। बीहड़ समुद्र में अरब देशों से आने वाले सोने से भरी जैकटों को मछलीमार नौकाओं में लादकर समुद्र तट पर उतारने से लेकर गंतव्य तक पहुंचाने में जोखिम बहुत था। लेकिन आमदनी उस ढंग की नहीं थी, जैसी कि ठेके पर काम करने में। (मुंबई की अपराधिक दुनिया में ठेकों पर काम करने को सुपारी देना कहा जाता है जिसमें क्लाइंट गिरोह को काम सौपते समय तक रकम की आधी राशि अग्रिम में देते समय साथ में एक सुपारी भी देते हैं।)
सुपारी के काम ने दाऊद के बड़े भाई साबिर को इस हद तक रोमांचित किया कि उसने दाऊद, आलमजेब, अमीरजादा, शाहजादा तथा कुछ और साथियों का गिरोह बना कर सुपारी लेना शुरू कर दिया। शुरू में मिली सफलताओं ने उन्हें और भी दुस्साहसी बना दिया। दूसरी तरफ करीमलाला के उम्रदराज हो जाने से उनके भतीजे तथा वारिस समद खान ने उनका काम संभाल लिया। इस तरह से दो सुपारी गिरोहों का नेतृत्व दो दुस्साहसी युवकों के हाथों में आ गया। यहीं से इन दोनों गिरोहों के बीच आपसी टकराव और प्रतिद्वंद्विता का जो बीज पड़ा, वह आगे चलकर हिंसा का वटवृक्ष बन गया। लेकिन तब इसका आभास न तो उन दुस्साहसी युवकों को था और न उनके अभिभावकों को।
मुंबई में सुपारी देकर काम कराने वालों की कमी नहीं थी। जिस महानगर का सारा व्यवसाय उधारी पर चलता हो और गोदाम ,दुकान तथा फ्लैट बनवाकर किराये पर देकर आधी कमाई करने वालों की तादाद असंख्य हो, वहां उन लोगों की तादाद भी असंख्य होती है, जो पांव जमते ही अमानत में ख्यानत करने पर उतर आते हैं। अदालत में उनसे अपने धन या मकान-गोदाम दुकानों की वापसी के लिए याचिका दायर करने पर समय तो जाया होता ही है अदालती लड़ाई में वकीलों पर पानी की तरह पैसा बहाकर भी उन्हें अपना धन या सम्पत्ति मिलने की गारंटी नहीं होती, जबकि थोड़ी सी रकम और बढ़ाकर वे सुपारी देकर उन्हे वापस पा सकते हैं ऐसे में करीम लाला, समद खान तथा साबिर-दाऊद गिरोह को अपने पांव जमाने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
इसी बीच एक काम में मिली रकम के बंटवारे को लेकर साबिर-दाऊद का अपने गिरोह के तीन सदस्यों आलमजेब, अमीरजादा और शाहजादा से झगड़ा हो गया। इन तीनों को विश्वास था कि साबिर-दाऊद ने बंटवारा इमानदारी से नहीं किया और भारी रकम दाब ली है। तीनो ने अपने कुछ साथियों के साथ दाऊद का गिरोह छोड़ दिया और करीम लाला, समद खान के साथ हो गये। इससे दाऊद गिरोह को झटका लगा, लेकिन दोनों भाइयों ने इसकी परवाह नहीं की और सुपारी और तस्करी के साथ-साथ अपहरण फिरौती का काम भी शुरू कर दिया। 1975 आते-आते उनके कदम कुछ हद तक जम गये थे, लेकिन करीम लाला-समद खान का गिरोह अब भी उनपर भारी पड़ता था। 1975 में गिरोह ने मुसाफिर खाना पर कब्जा कर लिया जहां हज जाने वाले यात्री जहाज से रवाना होने तक ठहरा करते थे उसके तत्कालीन मालिक ने मुसाफिर खाना को खाली करने का ठेका दाऊद को दे दिया दाऊद ने अपने दो साथियों महमूद कालिया और खालिद पहलवान की सहायता से मुसाफिर खाना पर कब्जा कर लिया। तो उसका प्रभाव और बढ़ गया। वोहरा मुसलमानों से भरे उस इलाके में पहले करीम लाला के एक पठान सहयोगी सईद बट्टा का काफी प्रभाव था। लेकिन मुसाफिर खाना विजय के बाद करीम लाला के प्रभाव को काफी धक्का लगा, तो समद खान ने दाऊद के ठेके के काम में टांग अड़ाकर खुद उस पर दांत मारना शुरू कर दिया। उसने एक पार्टी को पटाकर वह जाब खुद ले लिया, जिसमें बतौर कमीशन दाऊद को तीन लाख रूपये नकद मिलने वाले थे। इसी तरह की कई पार्टियां दाऊद के हाथ में आकर भी निकल गईं। इन्हीं में एक था तीन स्वर्ण तस्करों मियां, उमर बख्शी तथा शमशेर का एसाइनमेंट जॉब।
दुबई से समुद्र तट तक पहुंचे तीन तस्करों के सोने पर कस्टम अधिकारियों ने छापा मारकर उसे कस्टम के स्ट्रांग रूम में जमा करा दिया था। लेकिन तीनों तस्करों को विश्वास था कि 12 लाख रूपये के सोने के बिस्कटों से भरा एक जैकेट एक कस्टम अधिकारी ने चुपचाप खिसका दिया था। उस कस्टम अधिकारी से वह जैकेट बरामद कर उन्हें सौंपने का जॉब साबिर और दाऊद को सौंपा, बदले में 3 लाख रूपये बतौर पारिश्रमिक देने की बात मंजूर की। किसी कारणवश यह जॉब दाऊद गिरोह पूरा नहीं कर सका, तो उन्होंने समद खान से संपर्क किया। समद खान ने आलम जेब और अमीरजादा की सहायता से वह जैकेट लाकर उन तीनों तस्करों को सौंप दिया, तो साबिर और दाऊद बौखला गए।
12 फरवरी 1979 को साबिर अपने घर से केनेडी ब्रिज के लिए रवाना हुआ, जहां उसकी एक रखैल वैश्या रहती थी, जब वह उसके साथ कार में रवाना हुआ तो अमीरजादा, आलमजेब व जफर एक रेस्तरां में पाव भाजी खा रहे थे, साबिर को देखते ही उन्होनें आंखों में बात की, पाव भाजी छोडक़र वह तुरंत रेस्तरां से बाहर निकले और एक कार में सवार हो उसके पीछे लग लिये। प्रभादेवी पहुंचकर उन्होने एक कार किनारे रोकी और अपनी रिवाल्वर निकालकर प्रभादेवी पैट्रोल पम्प पर कार में पैट्रोल भरवा रहे साबिर पर निशाना साधा और रिवाल्वर के चैंबर खाली करने शुरू कर दिये। साबिर कटे पेड़ की तरह जमीन पर गिर पड़ा, वे कार लेकर मुसाफिर खाना पहुंचे। हां दाऊद के अपने दफ्तर में होने की उम्मीद थी वहां पहुंचते ही उन्होंने बाहर से अंधा धुंध फायरिंग शुरू कर दी। भीतर मौजूद खालिद पहलवान ने जवाबी फायरिंग शुरू की तो एक गोली आलमजेब की टांग में लगी और वह गिर पड़ा। तब फायरिंग रोककर वे सब भाग खड़े हुए। साबिर की हत्या की खबर मिलते ही दाऊद सचमुच पागल सा हो गया। उसने और उसके गिरोह ने समद खान ,अमीरजादा के सभी ठिकानों पर हमले किये, लेकिन पहले से ही सतर्क गिरोह के सभी लोग अंडरग्राउंड हो गये थे। आलमजेब-अमीरजादा से सलाम दुआ का रिश्ता रखनेवाले जो भी उनके सामने पड़े उनकी बुरी तरह से धुनाई की। आलमजेब और अमीरजादा जिस गली में रहते थे, वहां खड़ी टैक्सियों में आग लगा दी, उन्होने उन्हें मुफ्त पान खिलाने वाला पनवाड़ी को भी नहीं बख्शा, लेकिन असली मुजरिम तो साबिर की हत्या होते ही फुर्र हो गये थे।
दो गिरोहों की जानलेवा दुश्मनी, ऊपर से कस्टम तथा मुंबई पुलिस के बढ़ते दबाव के कारण दाऊद के तस्करी व्यापार पर बुरी तरह से असर पड़ा था और उसके लिए मुंबई सुरक्षित स्थान भी नहीं रह गया था, न व्यवसाय के लिहाज से और न ही सुरक्षा की दृष्टि से ऐसे में उसकी निगाह गुजरात के सुनसान सागर तटों पर गयी। जहां कभी तस्कर सम्राट सख नारायण बखिया का एकक्षत्र साम्राज्य था और कस्टम अधिकारी भी उस पर हाथ नही डाल पाते थे। उसने तुरंत बखिया के दायें हाथ लल्लू जोगी से दमण जाकर मुलाकात की। बखिया की गिरफ्तारी के बाद लल्लू जोगी भी अकेला पड़ गया था। दाऊद ने दुबई के शेख हाजी अशरफ के साथ लल्लू जोगी की मीटिंग कराकर एक गिरोह की स्थापना की, जिसके तहत विभिन्न देशों से सोने का जुगाड़ करने की जिम्मेदारी शेख हाजी असरफ की, द्रमण में सोना उतार कर निर्धारित जगहों पर पहुंचाने का काम लल्लू जोगी का तथा दुबई से गुजरात तक सोना तथा दूसरे सामान पहुचाने,सोने के बदले में भुगतान आदि की जिम्मेदारी तथा पूरा ऑपरेशन दाऊद को सौंपा गया। इस तरह तिलंगे तस्करों का व्यापार तब तक निर्विधन चलता रहा, जब तक दयाशंकर वहां कस्टम कलक्टर बनकर नहीं आ गए। उनकी घेरेबंदी से घबराकर दाऊद को दमण का सुरक्षित तट छोडक़र जामनगर के तट पर अपना कारोबार जमाना पड़ा। उसने वहां का काम संभालने की जिम्मेदारी जस्सू पटेल तथा जाखू काटा पर सौंपी। ताकि वह अपना ध्यान दुबई में स्थापित कारोबार संभालने में लगा सके। उसने वहां पर गारमेंट फैक्ट्री, ताजी खाद्य सामग्री और गोश्त के अलावा इलेक्ट्रॉनिक्स सामानों के आयात का काम भी शुरू कर दिया था। अभी तक ऊपर से शांत दिख रहा दाऊद आलमजेब को भूला नहीं था। दाऊद को मुंबई पुलिस पर विश्वास नहीं रह गया था। दाऊद की यह भी शिकायत थी कि साबिर के हत्यारों का नाम पता मालूम होने के बाद भी पुलिस ने किसी भी मुजरिम को गिरफ्तार नहीं किया था। किन्तु कुछ समय बाद जब अमीरजादा ने शक्ति फिल्म (दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन, राखी एवं स्मिता पाटिल) के निर्माता मुशीर रियाज का अपहरण फिरौती के लिए किया, तो वही पुलिस तत्काल हरकत में आ गयी और अमीरजादा को 29 फरवरी 82 को गिरफ्तार कर लिया।
6 सितम्बर 1983 को जब अमीरजादा को पुलिस की कड़ी निगरानी में सेशन जज एस.वाई.जोशी की अदालत में जफर अली के साथ पेश किया गया तो दर्शकों की दीर्घा में बैठा डेविड परदेसी उठा और रिवाल्वर निकालकर प्वाईंट रेंज से अमीरजादा पर फायर किया। फिर अदालत में भगदड़ का फायदा उठाकर भागा लेकिन अदालत में बैठे इंस्पेक्टर इसाक बागवान ने उसके पैरों का निशाना साधकर गोली चलायी। वह गिर पड़ा और पुलिस ने उसे दबोच लिया। भरी अदालत में अमीरजादा की हत्या होते ही आलमजेब भाग निकला और कच्छ (गुजरात) पहुंचकर एक अपराध में अपने को गिरफ्तार करवा दिया ताकि वहां पर सुरक्षित रह सके। हत्या के वक्त छोटा राजन के साथ अदालत में मौजूद दाऊद भी वहां से चुपचाप खिसक गया। पुलिस ने क्या तहकीकात की यह तो पता नहीं लेकिन समद खान गिरोह ने पता लगा लिया कि दाऊद ने वरदा भाई के कभी दायें हाथ रह चुके राजन नायर को अमीरजादा की हत्या के लिए सुपारी दी थी और डेविड परदेसी उसी का शूटर था।
(मुंबई के जरायम सिंडीेकेट के बीच मारकाट अब खूनी इंतकाम में बदल चुकी थी। आगे आपकों बताएंगें किस तरह दाउद ने अपने दुश्मनों का सफाया करके डॉन की पदवी हासिल की)
0 Response to ". . . .ओर पुलिस हवलदार का बेटा अपराध की अंधी गली में चला गया"
एक टिप्पणी भेजें