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माया नगरी की सडक़ों पर बहने लगा खून

माया नगरी की सडक़ों पर बहने लगा खून


अपने भाई साबिर की हत्या करने वाले अमीरजादा को मौत के घाट उतारने के बावजूद दाउद के दिल में बदले की भावना कम नही हुई थी। अब दाऊद के बदले का दूसरा मोहरा था समद खान। दाउद इस बात का बखूबी समझता था कि अगर समदखान को जिंदा छोड़ा गया तो वह उसके लिए खतरनाक होगा। लिहाजा उसने अपने गिरोह में शामिल शूटर समदखान का खात्मा करने के लिए छोड़ दिए।

आखिरकार अक्टूबर-1984 की एक सुबह समद खान का गोलियों से छलनी रक्त रंजित शव गिरगाम में एक मकान के पास पड़ा मिला। समद खान करीम लाला को प्राणों से भी ज्यादा प्यारा था। करीम लाला उसकी मौत का बदला लेने के लिए कोई कदम उठाते कि समद की हत्या के ठीक एक महीने बाद नवंबर 84 में पुलिस ने करीम लाला को एक गोदाम में आग लगाने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया। जमानत पर छूटते ही उन्हें पुन: रासुका में गिरफ्तार कर लंबे अरसे के लिए सीखचों के भीतर बंद कर दिया गया। उन पर भिवंडी तथा दक्षिण मुंबई में हुए दगों को भडक़ाने का भी आरोप था। एक तरह से पुलिस और दाऊद इब्राहीम ने मिलकर करीम लाला के अपराधिक साम्राज्य को ध्वस्त सा कर दिया था।
दुसरी तरफ अमीरजादा का हत्यारा डेविड परदेसी आर्थर रोड जेल में बंद था। पुलिस की यातना और पिटाई से वह उन लोगों के नाम उगल सकता था, जिन्होंने उसे अमीरजादा को मारने के लिए वस्तुत: सूुपारी दी थी या उसके पीछे उनका प्रमुख हाथ था। उसकी निशानदेही पर राजन नायर को पुलिस पहले ही गिरफ्तार कर चुकी थी। एक दिन डेविड रहस्यमय ढंग से पुलिस हिरासत से गायब हो गया। इसी बीच आलमजेब का एक और साथी कालिया अंथोनी, जिसका बांद्रा से लेकर अंधेरी तक आतंक साम्राज्य छाया हुआ था, पुलिस मुठभेड़ में मारा गया।
कालिया की मौत और डेविड परदेसी की फरारी से बौखलाए आलमजेब ने अब्दुल कुंजू को अमीरजादा की हत्या के लिए जिम्मेदार राजन नायर को भरी अदालत में उसी तरह मारने के लिए एसाइन किया, जैसे अमीरजादा मारा गया था। अब्दुल कुंजू ने इसके लिए चंद्रशेखर सफालिगंा को तैनात किया। जिसने एस्टलेनेड कोर्ट के अहाते में पुलिस के कड़े पहरे में आ रहे राजन नायर की गोली मार कर हत्या कर दी। उस समय उसने नेवी की यूनीफार्म पहन रखी थी, उसकी अभिरक्षा में तैनात इंसपेक्टर गुरू ने छलांग लगाकर सफालिगां को पकड़ लिया। लेकिन 12 दिसंबर 85 को वह भी डेविड किसी तरह पुलिस गाड़ी में निकल भागा और तीन महीने बाद पुलिस मुठभेड़ में मारा गया।
आलमजेब को पूरा शक था कि डेविड परदेसी को पुलिस हिरासत से भगवाने तथा पुलिस को सूचना देकर कालिया अंथोनी, चंद्रशेखर सफालिगा, एवं महमूद कालिया को पुलिस मुठभेड़ में मरवाने के पीछे दाऊद का ही हाथ था। लिहाजा दाऊद गिरोह को तितर-बितर करने के उद्देश्य से आलमजेब ने इकबाल टैंपो के साथ मिलकर दाऊद के खास आदमी रशीद अरबी पर महालक्ष्मी पेट्रोल पंप के पास हमला किया, लेकिन वह बच गया फिर उसने दाऊद के एक दूसरे साथी बख्शी वधावन की हत्या कर दी।
साबिर के हत्यारों में अब सिर्फ आलमजेब बचा रह गया था, जो पूरी ताकत से दाऊद गिरोह को छिन्न भिन्न करने के लिए उसके साथियों पर हमला कर रहा था। दाऊद ने अभी तक अपने भाई साबिर के किसी भी हत्यारे को यमलोक पहुंचाने के लिए खुद हथियार नही उठाया था और इस बार भी उसे जरूरत नहीं पड़ी। वह मुंबई से अपना डेरा उठाकर 1985 में दुबई जा पहुंचा था। क्योंकि मुंबई में पुलिस के साथ दुश्मन भी उसके उपर निगाह गडाएं हुए थे। लेकिन उसके बदले की आग अभी ठंडी नहीं हुई थी। उसका निशाना आलमजेब ही था।
दाउद ने एक बार फिर फिर निशाना साधा और आलमजेब भी यमलोक पहुंच गया। 29 दिसंबर 85 को आलमजेब सूरत शहर के बाहरी इलाके में स्थित गुजरात हाउसिंग बोर्ड कालोनी के एक फ्लैट में उस समय मुठभेड़ में मारा गया, जब वह भारती नामक एक युवती के साथ जबरदस्ती पर उतारू था। उसकी चीख सुनकर पड़ोसियों ने सब इंसपेक्टर दलसुख भाई पारधी को इत्तला की तो उन्होनें पुलिस बल के साथ वहां छापा मारा और मुठभेड़ में आलमजेब को जान गंवानी पड़ी। भारती को उसके मनोरंजन के लिए आलमजेब के गिरोह की दो औरतें कैराग्राम से फुसला कर ले आयी थी। लेकिन किसी बात पर वह जोर जोर से चीखने लगी थीं।
आलमजेब की पुलिस मुठभेड़ में मौत के बाद अपराध जगत में इस तरह की चर्चा हुई की उसकी हत्या की योजना दाऊद गिरोह ने ही बनायी थी। दाऊद के किसी आदमी ने ही भारती नामक युवती को आलमजेब के पास भिजवाया था और दलसुख पारधी को सूचना भी उसी ने दी थी। इंसपेक्टर पारधी आलमजेब को मारने के लिए राष्ट्रपति का गोल्ड मैडल मिला था। इस तरह दाऊद के इंतकाम का आखिरी चरण भी पूरा हो गया था। लेकिन इसके लिए उसे भी कम कीमत नहीं चुकानी पड़ी थी।
अपने दुश्मनों को अंजाम तक पहुंचाने और सारी संपन्नता के बावजूद दाउद को निर्वासित होकर अपनी बीवी और बेटियों से काफी दूर दुबई में रहना पड़ रहा था। चोरों की तरह छिपकर वह मुंबई जाता और परिवार तथा साथियों से मिलकर वापस लौट जाता। हर क्षण दुश्मनो का खतरा नंगी तलवार की तरह उसके सिर पर लटकता रहता। महेश ढोलकिया की हत्या के बाद ढोलकिया गिरोह भी उसका जानी दुश्मन बन गया था। पुलिस हाथ धोकर उसके छोटे भाई अनीस के पाछे पड़ गयी थी। वह एक जुर्म में जब जमानत पर रिहा होता, तो उसे तुरंत दूसरे जुर्म के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता। वहां से जमानत पर रिहा होता, तो पुलिस उसे रासुका के तहत गिरफ्तार कर लेती।
दाऊद अपनी पहुंच के बलपर हर वर्ष मुंबई चोरी छिपे आता है। अपने भाई इकबाल की शादी तथा पिता इब्राहीम कास्कर की शव यात्रा में भी वह मुंबई आया लेकिन सारी सतर्कताओं एवं तैयारियों के बावजूद पुलिस उसे गिरफ्तार नहीं कर सकी। वैसे पुलिस और अपराध जगत के लोग कहते है कि मुंबई पुलिस में उस समय तक दाउद ने ऐसी पैठ बना ली थी कि ढेर सारे पुलिस वाले एक तरह से उसके पेरोल पर काम करने लगे थे। दाउद उनकी पैसे से मदद करता जिसके बदले वे दाउद को पुलिस की सारी सूचनाएं देते । यही कारण रहा कि उसके मुंबई आने की भनक ऐसे पुलिस वालों को कभी नही मिली जो सचमुच दाउद को गिरफ्तार करना चाहते थे।
लेकिन अपने परिवार से दूर रहकरे बनवास झेल रहा दाउद वापस मुंबई आना चाहता था, सशर्त समर्पण भी करना चाहता था, लेकिन उसे मुंबई पुलिस और यहां की जेल पर भरोसा नहीं था क्योंकि उसके एक सहयोगी बाबू रेशीम पर पांच मार्च 87 को उसके नये प्रतिद्वंदी महेश ढोलकिया ने अपने सहयोगी शेट्टी गिरोह की मदद से हमला किया और मरवा डाला। इसके लिए ढोलकिया ने विजय उटकर तथा उसके साथियों को सुपारी दी थी। जिन्होंने जेकब सर्किल लॉेकअप में बमों से हमला कर बाबू रेशीम का खात्मा किया था। बाबू रेशीम के हत्यारों को सबक सिखाना जरूरी था। क्योंकि इसमें जरा भी देर की जाती तो दाउद का वह साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो जाता जिसे उसने खून का दरिया पार करने के बाद खड़ा करने की कोशिश की थी। शेट्टी का खात्मा करने के लिए उसने रमा नाइक गिरोह को सुपारी दे डाली।
उस वक्त मुंबई में शेट्टी गिरोह और रमा नाईक गिरोह एक दूसरे के जानी दुश्मन थे, रमा नाईक दाऊद का साथी था। बाबू रेशीम की हत्या का बदला रमा नाईक ने एक महीने के भीतर, महेश ढोलकिया की उसके घर से कुछ कदम की दूरी पर दिनदहाड़े हत्या करके ले लिया । लेकिन रमा नाईक भी 21 जुलाई 88 को पुलिस मठभेड़ में मारा गया।
लगभग एक दशक तक बदले के लिए चली इस लगातार खूनी जंग से दाऊद की ही तरह करीम लाला और अरविंद ढोलकिया भी परेशान थे और उसे खत्म करना चाहते थे, दाऊद की बढ़ती ताकत को करीम लाला और अरविंद ढोलकिया ने भी दूसरे माफिया गिरोहों की तरह मान लिया था। इसी लिए करीम लाला ने मक्का तथा अरविंद ढोलकिया ने लंदन में दाऊद से मुलाकात कर समझौते की बात चलायी दाऊद भी इस लुकाछिपी को खत्म कर मुंबई वापस आना चाहता था। इसके लिए उसने तथा उसके मुंबई स्थित आदमियों ने हर तरीके से पृष्ठभूमि बनानी शुरू कर दी। कुछ पत्र-पत्रिकाओं में इस आशय की रिपोर्ट तथा लेख प्रकाशित कराये गये कि अगर सरकार उसे पांच छह वर्षों की सजा देकर संतोष कर ले, तो वह आत्म-समर्पण करने के लिए तैयार है।
मुंबई में दाऊद का काम देख रहे छोटे भाई नूरा उर्फ नूर मोहम्मद इब्राहिम ने कुछ प्रभावशाली माध्यमों तथा उच्च पुलिस अधिकारियों के जरिये महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवंार से गुप्त मुलाकातें कर इस बात का आश्वासन दिया कि अगर दाऊद को कुछ शर्तों के साथ आत्मसमर्पण का मौका दिया जाए तो वह शिवसेना की बढ़ती ताकत को बे्रक लगा सकता है। फिर अगर हाजी मस्तान सहित 40 से भी ज्यादा तस्करों-माफिया सरदारों को आत्मसमर्पण करने का मौका देकर माफ किया जा सकता है, तो दाऊद को क्यों नहीं?
यह सब चल ही रहा था कि अचानक इस गैंगवार ने एक बार फिर पलटा खाया और आत्मसर्मपण कर सकून की जिदंगी बिताने के दाउद के मंसूबे धरे रह गए। इसक वजह थी सतीश राजे की हत्या।
यह 21 नवम्बर 88 की बात है जब हयम हाई स्कूल (भायखला) के चौराहे की लाल बत्ती पर अपनी वातानुकूलित इंपोटेंड कार होंडा अकार्ड के भीतर सतीश राजे बार-बार अपना पहलू बदल रहा था। उसकी नजरें बार-बार घड़ी पर टिक जाती थीं। उसे नागपाड़ा से नूरा से मिलकर दुबई से जरूरी संदेशों के बारे में बात भी करनी थी। वह विचारों में खोया हुआ था कि अचानक जोर की आवाज हुई। उसने चौंककर देखा, कुछ लोग हथौड़ो से उसकी कार की विडं स्क्रीन तथा पीछे का शीशा तोड़ रहे थे। जब तक वह संभल कर कार में सवार अपने साथियों को आदेश देता, एक हमलावर ने उसके कार ड्राइवर की कनपटी पर अपनी रिवाल्वर सटा दी और दूसरे ने उसके ऊपर गोलियों की बौछार शुरू कर दी। क्षणभर में ही उसका सारा शरीर खून से नहा उठा और वह शीट पर ही लुढक़ गया। हमलावरों को इतने से संतोष नहीं हुआ। तो उन्होंने उसी हथौड़े से जिससे वे कार की ङ्क्षवड स्क्रीन तोड़ रहे थे, उसके सिर को चकनाचूर कर दिया। तब तक बत्ती हरी हो गयी और कार के आगे खड़ा टैंकर जब आगे की ओर बढ़ा तो ड्राइवर ने झटके से कार स्टार्ट की और जेजे अस्पताल की तरफ भागा। कार से उतारकर वह उसे अस्पताल में ले गया, लेकिन डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। सतीश राजे नाम का यह शख्स दरअसल दाऊद का एरिया कमांडर यानि मुंबई चीफ था।
सतीश राजे की मौत के साथ ही डाक्टर तथा अस्पताल के कर्मचारी ही नही समूचा मुंबई शहर सकते में आ गया।। उसकी मौत की खबर सुनते ही चारों तरफ दहशत सी छा गयी। जरायम की दुनिया में जरा सी भी समझ रखने वाले जान गए कि अब जरूर कोई अनहोनी होगी। क्योंकि दाउद अपने एक आदमी की मौत पर खून का दरिया बहाने के लिए तब तक बदनाम हो चुका था। फिर सतीश राजे की हत्या तो उसकी रीढ़ पर वार करने जैसी थी। सतीश की हत्या के ठीक 12 दिन बाद 4 दिसंबर 1988 को मुंबई से रात के अंधेरे में एक मारूति कार सन्नाटे को चीरती हुई पूणे जा रही थी। मुबई तथा न्यू बांम्बे के बीच बने लंबे पुल को पार करके कांकरण भवन को पार करती हर्इु कार पनवेल के निकट पहुंची तभी एक दूसरी मारूति वैन ने उसका रास्ता रोक दिया। उस वैन से अंधेरे में तमाम चेहरे नमूदार हुए। उन्होंने मारूति कार पर अपनी आटोमैटिक रायफलों से अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। गालियां कार को छेदते हुए कार के भीतर सवारों को भी छलनी किये जा रही थीं। अचानक उस कार का ड्राइवर श्यामसुंदर नायर कार का दरवाजा खोलकर भागा। तब तक एक हमलावर की निगाह उस पर पड़ी और उसने अपनी स्टेनगन का रूख उसकी ओर कर दिया। कुछ क्षणों में ही गोलियों से छलनी उसका शरीर धराशायी हो गया, कार के भीतर होने वाली चीख चिल्लाहट तथा फायरिंग की आवाज उधर से गुजर रही हिंदुस्तान आर्गेनिक केमिकल फैक्ट्री की बस के ड्राइवर ने सुनी तो बस रोक दी। लेकिन हमलावरों ने जब उसकी बस पर फायरिंग शुरू कर दी, तो वह परली तरफ के दरवाजे से कूद कर भाग निकला और अंधरे में गुम हो गया। हमलावरों ने 180 से अधिक राउंड गोलियां चलायी थी, जिसमें 90 गालियां सिर्फ कार में लगी थी। इस हत्याकांड के मारे गये लोग थे अशोक जोशी (30) सतीश श्ंाकर सावंत (23) दिलीप लांडगे (22) करूपाकर हेगड़े (25) तथा श्याम सुंदर नायर मृतकों के नाम सुनते ही मुंबई में जैसे बिजली सी कौंध गई।
कौन थे सतीश रोजे, अशोक जोशी और उनके साथी जिनकी हत्याओं ने हंगामा करवा दिया था। दरअसल 21 नवबंर से 4 दिसंबर 88 के बीच 12 दिनों तक मुंबई के माफिया गिरोहों में खून की होली चलती रही जिसे खेलने वाले थे तीन अलग-अलग माफिया गिरोहों के कुख्यात सरगना। 21 नवंबर को जिस सतीश राजे की हत्या हुई थी, वह माफिया डॉन दाउन इब्राहीम का दांया हाथ था और दुबई में रह रहे दाऊद के सारे धंधों का मुंबई से संचालन करता था।
25 नंवबर को कुख्यात तस्कर एंव होटल मालिक अरविंद ढोलकिया और दो दिनों बाद उसके दूसरे माफिया साथी तथा होटल मालिक मनु करमचंदानी की हत्या हुई। इसके बाद 4 दिसंबर 88 को अशोक जोशी एवं उसके साथियों की हत्या हुई। अशोक जोशी रमाकांत नाईक गिरोह को सरगना था, जो 21 जुलाई 88 को चैबूर में पुलिस मुठभेड में नागापड़ा के पुलिस निरीक्षक राजन काटदरे के हाथों मारा गया था। रमाकांत की मौत का बदला उसके गिरोह ने सतीश राजे की हत्या करके तथा दाऊद गिरोह ने सतीश राजे की हत्या का बदला अशोक जोशी तथा उसके साथियों की हत्या करके लिया था।
सतीश राजे की हत्या में रमा नाईक के तीनों साथी (अरूण गवली, अशोक चौधरी उर्फ छोटा बाबू तथा आोक जोशी आदि) तथा अशोक जोशी ऐंड कंपनी की हत्या में दाऊद गिरोह के सरदारों ने सीधा भाग लिया था।
अपने तथा गिरोह से जुड़े सदस्यों पर हो रहे लगातार कातिलाना हमलों से आतंकित अरविन्द ढोलकिया ने कुछ संपर्क सूत्रों के माध्यम से दाऊद इब्राहिम से दुबई में मुलाकात कर संधि प्रस्ताव रखा। इस समूचे मामले में ढोलकिया परिवार की चुप्पी का भी पुलिस ने यही अर्थ निकाला कि वे दाऊद गिरोह से अपनी दुश्मनी को आगे बढ़ाना नहीं चाहते थे। नब्बे के दशक के पूरा होने तक ढोलकिया बंधु अपराध जगत की अहम धुरी रहे थें।
कौन थे ये ढोलकिया बंधु और दाऊद दब्राहिम से क्यों हो गई थी उसकी दुश्मनी? इसे जानने के लिए हमें एक बार फिर अतीत में जाना पड़ेगा? गुजराती एवं मारवाड़ी बहुल गिरगाम क्षेत्र की सिंधी गली में रहने वाली शांता बेन के चार बेटे थे, प्रवीण, ललित, अरविंद तथा महेश। महेश के जन्म के कुछ समय बाद ही उसके पिता की मौत होने से पूरा परिवार एक तरह से बेसहारा हो गया। शांताबेन सिलाई आदि के काम कर बच्चों को पालने लगी। दोनों बड़े बेटों, प्रवीण तथा ललित ढोलकिया ने छोटे मोटे रोजगार शुरू किये।
अरविन्द तथा महेश नौजवानी में कदम रखते ही तस्करी के आने वाले कपड़े साईकिल पर लादकर गली गली बेचने लगे थे। यह वह समय था, जब नौजवान शाबिर और दाऊद इब्राहिम ने मनीष मार्केंट में एक छोटी सी स्टॉल खोलकर तस्करी के सामान बेचने शुरू किये थे, अरविंद और महेश को तस्करी से लाये कपड़े बेचने में अच्छी आय होने लगी, तो उनके रहन-सहन में भी सुधार आया। सिंधी गली में टेलीविजन सबसे पहले उन्हीें के घर आया। चालनुमा मकान की हालत में रौनक आने लगी। लेकिन बड़े भाई प्रवीण एवं ललित को अरविंद तथा महेश का धंधा पसंद नहीं था। जोखिम होने के कारण पूरे परिवार में खटपट शुरू हुई, तो प्रवीण एवं ललित दूसरा मकान लेकर वहां सपरिवार रहने चले गये। बाद में अरविंद तथा महेश भी सिंधी गली वाले मकान को छोडक़र अन्यत्र रहने लगे। उसके बाद बेतहाशा कमाई होने पर वे पेंडर रोड जैसे पॉश इलाके में काफी बड़े फ्लैट में रहने लगे। वृद्धा मां शांताबेन चारों बेटों के पास एक एक कर रहने लगी। चारों भाइयों के अलग-अलग रहने के बावजूद उनके आपसी रिश्ते नहीं टूटे थे।
ढोलकिया बंधुओं ने शेट्टी या दूसरे गिरोहों की तरह ‘ठेके’ या ‘जॉब एसाइनमेंट’ का धंधा नहीं अपनाया। उनहोंने होटल तथा रेस्तरां खोलने शुरू किये, जहां वेश्याएं आकर ग्राहकों को मनोरंजन करती थीं। 1979 में मीसा में दूसरे अपराधियों की तरह अरविंद और महेश भी गिरफ्तार हुए। 1978 में रिहाई के बाद हाजी मस्तान, युसूफ पटेल आदि दूसरे तस्करों की तरह उन दोनों ने भी भवन निर्माण का काम शुरू किया। तब उनके विरूद्ध धोखाधड़ी के कई मामले प्रकाश में आये, जैसे एक ही फ्लैट को कइयों को बेच देना और कइयों से फ्लैट के पूरे पैसे लेने के बावजूद उन्हें फ्लैट का कब्जा न देना। लेकिन उनके भय से किसी ने पुलिस थानों में रिपोर्ट लिखाने की हिम्मत नहीं की।
1978 में अरविंद तथा महेश पर हिंसात्मक उपद्रव तथा हत्या के सात मामले दर्ज हुए थे। लेकिन सबूत के अभाव में उन्हें कोई सजा नहीं मिली। 1976 के बाद उन पर तस्करी के कोई आरोप दर्ज नहीं किये गये, जबकि पुलिस को सब कुछ पता था।
उन्होंने इसके साथ-साथ गिरगाम, वर्ली, खार आदि क्षेत्रों में कई होटल डिस्कोथिक आदि खोले, उनमें होटल सीजर्स पैलेस (खार) फिशरमैन हवार्थ (वर्ली) होटल अंजता एलोरा (गिरगाम), क्लियो डिस्कोथिक आदि प्रमुख थे। उन्होंने ये होटल तथा डिस्कोथिक उन आधुनिक युवक युवतियों के लिए खोले जिनके पास पैसा भी था और पश्चिम सुख भोगने की लालसा भी। इन स्थानों पर नशीले पदार्थों से लेकर कालगर्ल तक मिलती थी। इसीलिए ये होटल और डिस्कोथिक पुलिस छापे के हमेशा शिकार होते रहे।
ढोलकिया बंधुओं का ‘होटल व्यापार’ समृद्ध हुआ तो उनके बहुत से दुश्मन पैदा हो गये। इनमें कुछ लोग ऐसे होटल मालिक थे जिनके होटल व्यापार पर ढोलकिया बंधुओं के कारण काफी असर पड़ा था। होटल सीजर्स पैलेस तथा क्लियों डिस्कोथिक में वेश्यावृत्ति के कारण वहां असामाजिक तत्वों की सरगर्मी जब ज्यादा बढ़ गयी तथा देर रात तक हंगामे के कारण आस-पास रहने वालों की नींद हराम हो गयी, तो उन्होंने पुलिस में शिकायत की। बांद्रा पुलिस ने छापे मारकर वेश्याओं एवं कालगर्ल की गिरफ्तारियां की। ये छापे सीजर्स पैलेस के अलावा ढोलकिया के दूसरे होटलों पर भी पड़े। दर्जनों छापों तथा सैकड़ों कालगर्ल की गिरफ्तारी के बावजूद जब होटल की गतिविधियों पर कोई असर नहीं पड़ा और नियमानुसार होटल रात साढ़े ग्यारह बजे तथा डिस्कोथिक साढे बारह बजे बंद करने की बजाए देर रात खुले रहे, तो मुंबई के पुलिस आयुक्त ने मार्च 1987 में डिस्कोथिक के लाइसेंस के नवीनीकरण से इंकार कर दिया।
इसके बाद जैसे ढोलकिया बंधुओं के पतन का दौर शुरू हो गया। पहले महेश ढोलकिया की मौत और उसके बाद अरविन्द ढोलकिया कानून से भागता रहा और फिर 17 सितम्बर 1988 को उसकी भी हत्या कर दी गई और एक दशक तक मुंबई में तस्करी का साम्राज्य चलाने वाले ढोलकिया बंधुओं का अंत हो गया। बाकी बचे ढोलकिया बंधुओं ने इसके बाद साफ-सुथरी अमन-चैन की जिंदगी का दामन थाम लिया।
बहरहाल, ढोलकिया परिवार का अंत जो हुआ लेकिन वास्तविकता यह थी कि मुंबई के अपराध जगत पर आधिपत्य जमाने और अकेला ‘डॉन’ बनने की दाऊद की नीति ने परदे के पीछे से सारे घटनाक्रम को अंजाम दिलवाया था। दरअसल ढोलकिया बंधुओं के कारण दाऊद और उसके भाइयों के काम धंधे भी प्रभावित हो रहे थे इसलिए दाऊद ने ढोलकिया बंधुओं की तबाह करने का इंतजाम शुरू कर दिया था।
(अपराध की दुनिया में दाऊद का डॉन का रूतबा हासिल करने के लिए और कितना खून बहाना पड़ा पढि़ए अगले अंक में)

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